ज़िन्दगी मदहोश थी ,
मौत के आगोश में
ले गयी फिर ज़िन्दगी ,
मौत के उस धेर पे
ले लिया जिसने वहां पे ,
रूह को इस जिस्म से
वो समझ न पाए फिर भी,
मौत के इस खेल को
रूह को इस जिस्म से
वो समझ न पाए फिर भी,
मौत के इस खेल को
काल का जो चक्र था,
वो चल रहा, अपनी गति
मौत थी जिस पल लिखी ,
वो आ गयी, उस घडी
वो चल रहा, अपनी गति
मौत थी जिस पल लिखी ,
वो आ गयी, उस घडी
पर वो समझ न पाए ये,
की अंत उनका है यही
क्योकि ज़िन्दगी मदहोश थी ,
मौत के अघोष में..
की अंत उनका है यही
क्योकि ज़िन्दगी मदहोश थी ,
मौत के अघोष में..
और वो वही फिर सो गए ,
मौत के आगोश में.......
हाँ सो गए... हाँ खो गए...,
मौत के आगोश में.......
मौत के आगोश में.......
हाँ सो गए... हाँ खो गए...,
मौत के आगोश में.......
zindagi madhahosh thi
maut ke aaghosh me
le gayi fir zindagi
maut ke us dher par
le liya jisne wahan pe
ruh ko is jism se
wo samjh na paye fir bhi
maut is khel ko
kal ka jo chakr tha
wo chal raha apni gati
maut thi jis pal likhi
wo aa gayi us hi ghadi
par wo samjh na paye ye
ki ant unka hai yahi
kyoki zindagi madhosh thi
maut ke aaghosh me....
aur wo wahi fir so gaye
maut ke aagosh me.....
haan so gaye..haan kho gaye..
maut ke aaghosh me...