समेटने चला था...
पर मालूम न था
उसका अंदाज़-ए-बयाँ...
सो कुछ लिखता गया..
कुछ कहता गया...
ख्वाबगाहों से उठा बस ...
कागज़ पे ही पटकता गया...
****पर जब देखा उन्हें तो मालूम हुआ की****
जैसे
कुछ पूरी थी उनमे......
कुछ अधूरी थी उनमे....
कुछ कही हुई......
कुछ अनकही थी उनमे.....
सो मै कहता गया...
और मै सहता गया...
कुछ अधूरी की फंस लिए....
बस अल्फाजों में अपने बहता गया....
मनो एक तमन्ना लिए.....
एक आरजू लिए.....
उन्हें पूरा करने का बस......
खूद से एक वादा लिए.....
----रितेश रस्तोगी